खलिश


साटन के पर्दे पडे,फर्श लगती कांच की बनी |
देओदार के पलंग बने,रेशमी उनपे चादर चढ़ी |
मनोरंजन के साधन बडे,मेहेंगे कपड़ो से अलमारी लदी|

हालातो से डट कर लडे, सब रिश्तों की कुर्बानी लगी |
माँ बाप पीछे छूटे, आसान थी ये राह नहीं |
अनेक प्रयत्न जब हम करे , हुई तब ये कोठी खड़ी |

हर गली थे कोठी के चर्चे , उस ग़ाव थी वो इमारत नयी |
सीना ताने हम चले, ऊची और हमारी नाक हुई |
लड्डू मन भीतर फूटे, सोचा पाए हम मुकाम सभी |

गाँव बसे कुछ सेठ नए,हुई और कोठियां खड़ी |
चर्चे जब उनके बढे , दिल मे एक खलिश जगी |
गाँव के जब वो मुखिया बने, साख तब हमारी घटी |

जोर लगा कर हम भिडे, हार थी स्वीकार नहीं |
सब शास्त्र हमारे लगे, खूब लम्बी वो जंग चली |
पानी भाति रुपये बहे , पर परिणाम में हमे जीत मिली |

गाँव छोड़ जब वे भागे, राहत भरी तब सांस ली |
सुकून के कुछ पल मिले,चाहत आखिर पूरी हुई |
दिल में फिर कुछ दर्द उठे,वो खलिश थी जिंदा अभी |

छोडे काम काज सारे , बेचैनी जब हमारी बढ़ी |
ज़िन्दगी के पन्ने पलटे , पढनी पूरी किताब पड़ी |
अधबीच आकर रुके, चुभती आखिर वो नोक मिली |

ज़मीन पे ठप गिरे, मौलिक एक गलती दिखी |
अब तक थे जो बाँध टिके, नीव फिर उनकी हिली |
संगेमरमर पे हम पडे, आंसुओ की झड़ी लगी |

होश संभाल जब उठे, वीरान अपनी कोठी दिखी |
माँ बाप भाई बेहें बिन हमे, ये कोठी भी कोठरी लगी |
उलझनों में तब फसे, दिखी आगे जब कोई राह नहीं |

खुद से थे शर्मनाक बडे, वापस जाने की थी औकात नहीं |
बेचैन थे सोच में पडे, कुछ दिन निकले और यूंही |
कुछ निर्णय फिर हम लिए, सुधारने को बिगडे रिश्ते सभी |

सामान बटोर घर को निकले, उम्मीद की एक किरण दिखी |
पुराने रास्तो पे जब पग पडे, चेहरे पे खिली मुस्कान नयी |
घर से थे बस कुछ दूर खडे, लम्बी एक कतार दिखी |

मौन थे सब लोग खडे, नजरे थी उनकी झुकी |
द्वार के भीतर जब झांके, दिल की हमारे धड़कन रुकी |
तस्वीरो पे थे हार पडे,  करदी थी हमने देर बड़ी |



-      उमंग


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